“सुमन, मेरे मोज़े कहाँ रखे हैं?’ कभी जगह पर मिलते ही नहीं।” शर्मा जी ने झल्लाते हुए अपनी पत्नी को आवाज़ लगाई।
उनके चहरे से साफ़ नज़र आ रहा था कि वह बेहद परेशान और नाराज़ हैं।
सुबह से ही कुछ न कुछ गड़बड़ हो रही थी।
“मोज़े आपके जूतों में ही पड़े होंगे।”
सुमन किचन से भागती हुई आई और जल्दी-जल्दी में हाथ में बेलन भी साथ ले आई थी।
“नहीं हैं जूतों में, तभी तो ढूँढ़ रहा हूँ।” शर्मा जी और झल्लाते हुए बोले। उनका चेहरा तमतमा रहा था।
ऑफ़िस जाने में देर हो रही थी और अभी उन्होंने नाश्ता भी नहीं किया था।
सुमन को याद आया कि उसने वे मोज़े कल धोने को डाले थे।
शर्मा जी उन्हें रोज़ धोने को नहीं डालते थे और इसीलिए सुमन को जब मोज़ों से बदबू आने लगती थी
तो वह उन्हें धोने डाल देती थी।
ज़्यादातर वह इतवार को उन्हें जूते से निकालकर, धोकर, सुखाकर, वापस जूतों में रख देती थी। पता नहीं क्यों शर्मा जी को मोज़े धुलवाना पसंद नहीं था।
और जब भी उन्हें जूतों के अंदर मोज़े नहीं मिलते, तो वह आपे से बाहर हो जाते।
कई बार उनकी और सुमन की इस बात को लेकर लड़ाई भी हो जाती। पर न तो सुमन बदली और न शर्मा जी।
आज भी सुमन जूतों में सूखे मोज़े रखना भूल गई थी।
“मुझे समझ नहीं आता कि मोज़ों की एक ही जोड़ी रखने के पीछे राज़ क्या है।
कम से कम एक जोड़ी और होनी चाहिए।” आँगन से मोज़े लेकर आती सुमन बोली।
“हम इस बात पर कितनी बार बहस करेंगेl मैंने कह दिया कि मुझे फिजूलख़र्ची पसंद नहीं है, तो नहीं है।
दो जोड़ी मोज़ों की क्या ज़रूरत है, पहनना तो एक ही है और पैर जूतों के अंदर ही रहते हैं।
कौन-सा सबको दिखाना है कि हमारे पास अलमारी भर के मोज़े हैं।”
शर्मा जी बड़बड़ाते जा रहे थे, बिना इस बात को ध्यान दिए कि सुमन वहाँ से जा चुकी थी।
To be continued..
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