पूरा हॉल भरा हुआ था।
अंतिम दर्शन के लिए लोगों की कतार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
बाहर भी लोगों का हुजूम भरा पड़ा था।
शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी आँखें नम न हुई हों।
दिन के ग्यारह बजे थे और अंतिम यात्रा का समय हो रहा था।
कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने चलने का इशारा किया।
अभिनव ने अपने पिता को सहारा देकर खड़ा किया।
अभिनव का बेटा अरनव अभी भी पूछता जा रहा था,
“पापा, दादी को कहाँ ले जा रहे हैं?” अभिनव ने अपनी पत्नी स्मृति से अरनव को हॉल से बाहर ले जाने को कहा।
अभिनव अपने छोटे से बेटे के प्रश्न का क्या उत्तर देता।
वह तो खुद माँ को खोकर सहज नहीं हो पा रहा था।
उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी माँ अजिता, जो उसकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा थी, वह उसे हमेशा के लिए छोड़कर जा रही थी।
वह आखिरी बार अपनी माँ के पास गया।
उनके चहेरे पर वही गंभीर और तेज़ का भाव था जो वह बचपन से देखता आया था।
उसकी याद में माँ की छवि तब से है जब, वह स्कूल जाने लगा था।
सुबह स्कूल जाते समय, माँ और बेटे के बीच तकरार रहती थी।
अभिनव स्कूल न जाने के बहाने बनाता और अजिता उसे तरह-तरह से मनाती, समझाती और कभी-कभी गुस्सा भी हो जाती।
अजिता के दिन की शुरुआत किचन से ही होती थी।
अभिनव को उठाने के पहले वह उसका टिफिन बना लेती थी क्योंकि अभिनव को स्कूल के लिए जगाना और तैयार करना उसके लिए किसी जंग से कम नहीं होता था।
काम समेट कर वह अभिनव को जगाने कमरे की तरफ जाती और कुछ देर वह अपने सोते हुए प्यारे बेटे को खड़ी देखती रहती।
नरम बिस्तर में सोये हुए अपने बच्चे को देखकर माँ के दिल में मातृत्व की धारा बहने लगती।
अपने लाडले को जगाना अजिता को एक पल के लिए गलत लगता।
मन कहता कि सोने दूँ लेकिन अगला पल एक जिम्मेदार माँ का होता जो उसे जगाने को मजबूर करता।
धीरे से अपना स्नेह भरा हाथ अभिनव के माथे पर सहलाती और आवाज़ लगाती “अभिनव उठो, अभिनव उठो।”
अभिनव चौंककर अपने ख्यालों के सागर से बाहर आ गया।
उसे लगा कि जैसे माँ उसे बुला रही है।
उसने मुड़कर नीचे देखा, उसकी माँ लाल कपड़ो में लिपटी उसी शांत भाव से लेटी हुई थी।
उसका मन व्यथित हो उठा। बचपन के पल रह रह कर याद आ रहे थे।
अपनी छोटी-छोटी उँगलियाँ अपनी माँ की हथेली में पकड़ा कर कितना बेफ्रिक हो जाता था वह।
तब उसे अपने चिंता करने की जरुरत नहीं महसूस होती।
नर्सरी क्लास तक वह स्कूल के बस स्टाप तक कभी खुद चल कर नहीं गया। माँ की गोद में ही जाता था।
एक कंधे पर बैग टांग कर, दूसरी तरफ अभिनव को गोद में उठाए और जिद्द में किये गये उसके उल्टे सीधे सवालों का जबाब देते हुए माँ का बस स्टाप तक पहुँचना याद आ रहा था।
स्टॉप घर से बहुत दूर तो नहीं था लेकिन पहली मंजिल से उतर कर वहाँ तक आते आते वह हाँफने लगती लेकिन अभिनव गोद से नहीं उतरता और फिर जब बस आती तो स्कूल बस में बैठा कर खिड़की से माँ को तब तक हाथ हिलाता जब तक दूर से उनकी गाड़ी दिखाई देती रहती और शायद तब तक उस की माँ भी वहीं खड़ी रह कर हाथ हिलाती रहती।
“कंधा दो बेटा, अपनी माँ को विदा करने का समय है।” किसी ने अभिनव से कहा।
कैसे दे वह अपनी माँ को कंधा जिनके कंधे पर सिर रखकर वह अपनी सारी परेशानी भूल जाया करता था।
उसे लग रहा था उसकी सारी शक्ति क्षीण होती जा रही है।
अपनी जगह पर खड़ा रहना भी मुश्किल लग रहा था।
वह संभाल कर नीचे बैठ गया और माँ को देखने लगा।
वह पल बहुत भारी हो रहा था उसके लिए।
ऐसा नहीं कि उसने कभी ऐसी कमजोरी न महसूस की हो पर तब माँ एक मजबूत चट्टान की तरह उसे सहारा देकर उठा देती थी।
जिन्दगी के पन्नें उसकी यादों के समन्दर में उड़ रहे थे जिनके हर पन्ने में माँ की यादों की खुशबू थी।
वह उन पन्नों में बीते हुए हर लम्हें को संजोकर रख लेना चाहता था जिनमें उसकी माँ के अलग अलग रुप थे।
एक रुप तो उस दिन भी था उनका शांत गंम्भीर और तेज़ से भरा व्यक्तित्व।
उसने अपनी माँ को हमेशा एक हिम्मती और दृढ़ संकल्प लेने वाली औरत के रुप में देखा था।
कैसे कर सकी वह इस तरह जो पचास साल पहले उन्नीस साल की एक अल्हर और अनुभवहीन बहू के रुप में एक अनजान परिवार में आई थी।
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