कैलाशा

Sketch of woman

Synopsis

तार को हाथ में लेकर पढ़ा तो मन घबरा गया। अचानक बुलाया है, जरूर कोई खास बात होगी।

“माँ जी, हम आपसे कभी झूठ नहीं बोलते। सच कह रहे हैं माता जी, हम आपकी बड़ी इज्ज़त करते हैं। कोई कह नहीं सकता कि हमने आपको अपनी सगी माँ से कम माना हो। आप ही हमारी सब कुछ हैं,” ललतू बोला।

वह शराब पीकर आया था और अपनी मालकिन के पास आकर रोने लगा। उसके शरीर से शराब की बहुत दुर्गंध आ रही थी।

“ललतू, तुम बाहर जाओ, बाद में बात करेंगे,” सुजाता अपने नौकर ललतू से बोली।

जब भी ललतू शराब पीकर कोठी के अंदर आ जाता था, तो सुजाता परेशान हो जाती थी। ललतू अपनी मालकिन सुजाता की बहुत इज्जत करता था और सुजाता के मन में भी ललतू और उसके परिवार के लिए करुणा का भाव था। यह बात ललतू अच्छी तरह समझता था इसलिए जब भी वह शराब पीता तो नशे की हालत में अपने दिल के दुख बताने सुजाता के पास आ जाता, उस दिन भी वहीं हुआ और फिर हर बार की ही तरह सुजाता ललतू को कोठी से बाहर निकालने के लिए अपने दूसरे नौकर संजय को आवाज लगाती।

संजय, जल्दी नीचे आ जाओ। ललतू को यहाँ से बाहर निकालो।”

संजय उस समय छत पर सफाई कर रहा था।

“आया, माँ जी,” कहकर संजय भागता हुआ नीचे आया और ललतू को पकड़कर कोठी के बाहरी हिस्से में बने ललतू के कमरे में ले जाने लगा।

“चलो ललतू बाहर निकलो, चलो,” और करीब-करीब धक्का देते हुए उसे बाहर निकाल दिया। बेचारा ललतू बार-बार रोते हुए कह रहा था,

“माँ जी, हमे कुछ कहना है,”

धीरे-धीरे यह आवाज आना बन्द हो गई, संजय उसे बाहर ले जाकर उसके कमरे तक छोड़ आया।

ललतू का कमरा, कोठी के बाहरी हिस्से में था। ललतू के साथ उसकी पत्नी रहती थी जिसे सब कैलाशा की अम्मा के नाम से बुलाते थे। कैलाशा की अम्मा उस समय अपने कमरे में बैठी रो रही थी। जब भी ललतू शराब पीकर आता, कैलाशा की अम्मा के मन का घाव हरा हो जाता और वह चुपचाप अपने कमरे में बैठकर रोती रहती।

“माँ जी ने कहा है कि ललतू को अभी कोठी के अंदर ना आने देना। जब नशा उतरे, तभी आए। ललतू को इस हालत में देखकर वह बहुत परेशान हो जाती हैं। अब शाम तक इसे यहाँ कमरे से निकलने नहीं देना,” संजय भी दुखी होकर बोला।

“ठीक है भईया अब यह शाम तक घर में नहीं आएंगे,” और कैलाशा की अम्मा ने बिना किसी भाव दिखाये अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया।       “माँ जी, ललतू को उसके कमरे में छोड़ आया हूँ। कैलाशा की अम्मा ने कमरा अंदर से बंद कर लिया हैं और वह अब उसे बाहर नहीं निकलने देंगी लेकिन ललतू की बहुत चिल्लाने की आवाज आ रही थी,” संजय ने कोठी के अंदर जाकर अपनी मालकिन सुजाता से कहा।

“अंदर से कमरा बंद कर लिया?” सुजाता ने परेशान होते हुए कहा, फिर कुछ सोचकर बोली,

“अब तो ललतू उसको बहुत मारेगा। बेचारी कैलाशा की अम्मा!”

“अब वह खुद ही संभालेगी। आप परेशान नहीं होइए। अब तक तो कैलाशा की अम्मा को आदत पड़ गयी होगी। थोड़ी देर में जब ललतू थक जाएगा तो सो जाएगा फिर शाम तक नशा उतर जाएगा तो ठीक हो जाएगा,” संजय समझाता हुआ बोला। उसे माँ जी की चिंता हो रही थी, हर बार ललतू नशा करके घर में आता है तो यही तांडव होता है और फिर माँ जी कई दिन तक परेशान रहती हैं। कई बार तो उनकी तबीयत ही खराब हो जाती है।

थोड़ी देर समझाने के बाद संजय ऊपर चला गया। सुजाता अपने कमरे में जाकर कुर्सी पर बैठ गई। न चाहते हुए भी आँखों में आँसू आ गये और मन यादों के तालाब में गोते खाने लगा। पचीस साल पहले का समय याद आने लगा।

समय कैसे पंख लगा कर उड़ जाता हैं।  लगता ही नहीं के इतना लंबा समय हो गया, ऐसा लगता है जैसे ये कल की ही बात हो जब सुबह सुबह गायों की नांद में सानी लगाकर नौकर संजय दूध लेकर घर में आया तो उसके साथ एक दरिद्र सी दशा में दिखने वाला एक आदमी, एक औरत और उस औरत के गोद एक छोटा बच्चा था। तीनों इतने गरीब दिख रहे थे कि आश्चर्य हो रहा था कि आजादी के तीस साल बाद भी इतनी गरीबी हमारे देश में हैं और हम शहर में रहने वालों को इसका पता नहीं।

कमजोरी के कारण उन लोगों कि आँख भी नहीं खुल रही थी। कपड़े मैले और फटे हुए थे, बाल इतने रूखे और बेजान लग रहे थे कि लग रहा था कि जैसे उनमें तेल कभी न ही लगा हो। चेहरों पर भूख और लाचारी उनकी दयनीय स्थिति का स्पष्ट प्रदर्शन कर रही थी। सुजाता को वह लोग लेखक मुंशी प्रेमचंद जी के उपन्यास के चरित्र लग रहे थे। आज़ादी के इतने सालों बाद भी यह अवस्था!

सुजाता का मन व्याकुल हो गया।

“कौन है यह लोग, संजय?”

“माँ जी, यह लोग हमारे गाँव के हैं। वहाँ सूखा पड़ गया है तो यह लोग दाने दाने को मोहताज हो गये हैं। अभी सीधे वहीं से चले आ रहे हैं। वहाँ दूसरे के खेतो में मजदूरी करते थे लेकिन अबकी बारिश नहीं हुई तो काम भी नहीं मिला। जो कुछ था वह सब इन्होने बेच दिया, अब जब इनके पास खाने को कुछ भी नहीं बचा तो यहाँ आ गये हैं। अगर आपकी और बाबूजी की मेहरबानी हो जाए तो इनका भी जीवन संवर जाए,” संजय हाथ जोड़कर बोला।

“बाबूजी तो अभी तो टहलने गये हैं तब तक इन्हे आँगन में बैठा लो, मैं कुछ खाने को ले आती हूँ,“  सुजाता बोली।

उस दिन घर में पूजा थी। उसके लिए खीर और पूड़ी का प्रसाद बनाया था। अभी पूजा में तो देर थी। यह खीर और पूड़ी अगर इन लोगों को दे दें तो उन लोगों के आनन्द का ठिकाना नहीं रहेगा। ऐसा खाना तो शायद ही कभी इन्होने खाया होगा; देशी घी की पूड़ी, मेवे की खीर और कददू की सब्जी। सुजाता पशोपश में फंस गई कि यह खाना पहले भगवान की मूर्तियों पर चढ़ाए या भगवान के बनाए इन भूखे इन्सानो को। फिर सोचा एक रचनाकार के लिए उसकी रचना का महत्व खुद अपने से ज्यादा होता है, यह सोचकर उसने दो थालियाँ निकाली, उसमे खाना परोसा और मन में भगवान को प्रणाम करके किचन से बाहर आ गई।

घर में फैली जिस खुशबू से वह दोनों गरीब अपने-अपने कंठ भीगो रहे थे, वहीं खाना सामने देखकर उन्हे अपनी किस्मत पर यकीन नहीं हो रहा था। दोनों ने नीरीह आँखों से एक दूसरे को देखा और फिर संजय को, जैसे पूछ रहें हो कि यह तुम हमें कहाँ ले आए, क्या यह जगह इसी लोक की है या हमें किसी और लोक में पहुंचा दिया हैं।

संजय उन दोनों को देखकर उनके मन की दशा समझ गया और बोला,

“खा लो, यह माँ जी बहुत दयालु हैं। इनकी शरण में आ गए तो तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। और अब कुछ सोचो नहीं, खा लो, फिर बाद में बात करेंगे।”

वह दोनों गरीब अपने जगह से उठे और हाथ जोड़कर सुजाता के पैर छुने झुके तो सुजाता बोल उठी,

“रुको-रुको, पहले खाना खालो। खाना छोड़कर नहीं उठा जाता।”

फिर उस औरत की ओर देखकर सुजाता ने कहा,

“इस बच्चे को चारपाई पर लिटा दो ताकि तुम लोग आराम से बैठकर खाना खा सको।”

सुजाता का मन उस बच्चे का चेहरा देखने का हो रहा था। सुजाता के घर में एक बच्चे की किलकारी के सिवा सब कुछ था। शादी को बीस साल हो गये थे लेकिन सुजाता की माँ बनने की इच्छा पूरी नहीं हो पायी थी और अब तो उसने आस भी छोड़ दी थी। अब वह अपने मन को उस इच्छा से दूर कर देना चाहती थी लेकिन इस बच्चे को देखकर उसका मातृत्व जाग उठा।

बच्चे को चारपाई पर लिटाते ही वह जाग गई, लड़की थी वह। छोटी-छोटी गोल आँखे खोली तो उसकी नज़र सीधा सुजाता की आँखों से मिल गई। रंग पक्का काला, हाथ पैर इतने पतले की गोद में उठाने से डर लगे लेकिन आँखों मे एक चमक थी। पता नहीं क्या था उसकी निगाह में कि सुजाता के अन्तर्मन को छू गई।

मन तो हुआ कि गोद में उठा ले लेकिन हिम्मत नहीं हुई। मन को रोककर वह वापस किचन में चली गई क्योकि अब उसे पूजा के लिए दूसरा प्रसाद बनाना था।

उस गरीब आदमी का नाम ललतू था और चूंकि औरत ने अपना नाम नहीं बताया था तो उसे उसकी लड़की कैलाशा के नाम से ‘कैलाशा की अम्मा’ बुलाया जाने लगा। कैलाशा नाम के पीछे भी एक कहानी थी। उसके जन्म के पहले सभी लड़का चाहते थे और उस लड़के का नाम कैलाश सोच रखा था लेकिन जनम जब लड़की का हुआ तो उसे कैलाशा कहने लगे।

थोड़ी ही देर में सुजाता के पति आ गये और उनकी संजय से बात होने लगी। बातचीत में यह तय हुआ कि कोठी के बाहर का कमरा जहाँ चारा रखा जाता है उसे खाली कर दिया जाएगा और वे लोग उसी में रहेंगे।

यह तीन मंज़िला बड़ी सी कोठी सीताराम चौधरी और उनकी पत्नी सुजाता की थी। सीताराम जी का अपना कारोबार   बहुत अच्छा चलता था। उन्होने अपनी कई दुकाने और लाँड्री किराए पर दे रखीं थीं। कोठी में भी कई किरायेदार रहते थे। कुल मिलाकर रुपये-पैसे से बहुत मजबूत थे। बच्चे थे नहीं इसलिए काफी समय उन लोगो का पूजा पाठ में निकल जाता था।

दो गायें पाली हुई थी जिनकी देखरेख का पूरा भार नौकर संजय पर था। संजय पहले तो बहुत दुबला पतला था लेकिन गायों की सेवा करके खूब तगड़ा और तंदरूस्त हो गया था, दिन भर दौड़-दौड़ कर काम किया करता था। उसकी शादी नहीं हुई थी और वो करना भी नहीं चाह रहा था इसलिए उसके माँ-बाप ने जबर्दस्ती शादी तय कर दी थी और अगले साल कराने की हिदायत दे दी थी। वह अक्सर आकर सुजाता से अपने माँ-बाप की शिकायत करता और कहता,

“जब मै अपनी जिंदगी में खुश हूँ तो वह लोग मेरे पीछे क्यों पड़े है। पता नहीं कैसी होगी, आकर मुझसे लड़ेगी तो मै उसे वापस भेज दूंगा।”

सुजाता हंसकर उसे समझाती,

“लड़ेगी क्यों?’ क्या सब औरते लड़ाकी होती है। क्या तुमने मुझे लड़ते हुए देखा है?”

“अरे माँ जी! आप यह क्या कह रही है, आप तो देवी माँ है। आपकी उन गवांर औरतों से क्या गिनती,” संजय अपने कान पकड़ते हुए बोला।

कुछ दिन बाद सीताराम जी ने ललतू को एक रिक्शा खरीदकर दे दिया था और कैलाशा की अम्मा, सुजाता के साथ घर के काम में लग गई।

चार साल बीत गए थे। इतने समय में ललतू और कैलाशा की अम्मा शहर की जिंदगी के अभयस्थ हो गयी थी। कैलाशा चार साल की हो गई थी और सबसे खूब बात करना सीख गई थी। वह सारा दिन अपनी अम्मा के साथ-साथ रहती और उसकी अम्मा जिसके घर काम करने जाती, कैलाशा भी साथ में चली जाती और वहीं खेलने लगती।

“अब इसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजो। सारा दिन घर में घूमती रहेगी तो कुछ सीख नहीं पाएगी।” सूजाता ने एक दिन कैलाशा की अम्मा से कहा।

“हम इसे स्कूल कैसे ले जाये?’ हमें तो कुछ आता नहीं हैं, वहाँ कैसे बात करनी है वह भी हमें नहीं पता नहीं हैं, माँ जी।”

“इसमें पता होने वाली क्या बात है। पास ही में तो स्कूल है वहाँ जाओगी तो स्कूल के लोग तुम्हें बता देंगे कि क्या करना है और ललतू को साथ ले जाओ।”

सुजाता का मन तो कर रहा था कि कैलाशा को किसी अच्छे स्कूल मे एडमिशन करा दे लेकिन ऐसा करने से संकोच हो रहा था कि जब लोग पूछेंगे तो क्या जवाब देगी।

“माँ जी, कैलाशा के पिताजी तो जाएंगे नहीं। उन्हे लड़कियों को पढ़ाने वाली बात समझ नहीं आएगी। हमारे गाँव में लड़कियों को घर के काम सिखाए जाते है, पढ़ाया नहीं जाता।” कैलाशा की अम्मा बोली। उसे खुद भी इस बात का कोई महत्व नहीं था। उसे आश्चर्य था कि माँ जी इस बारे में कैसे सोच रही है फिर सोचा कि शहर के सभी लोग पढ़ाई करते है, शायद इसलिए सोचा होगा।

“ऐसी बात है तो ललतू को बुलाओ, मैं समझाती हूँ उसको।”

और फिर से सुजाता ने ललतू को समझा बुझा कर कैलाशा का एडमिशन करवा दिया। कैलाशा स्कूल जाने लगी। अपनी नई यूनीफॉर्म और स्कूल बैग के साथ तैयार होकर कैलाशा निकलती तो ललतू और कैलाशा की अम्मा दोनों के चेहरे पर गर्व की खुशी साफ झलकती। दोनों अपनी बिटिया को लेकर शान से स्कूल छोडने जाते।

स्कूल का होमवर्क कराने की ज़िम्मेदारी सुजाता ने ले ली थी। कैलाशा का मन धीरे-धीरे पढ़ाई की तरफ लग गया और सुजाता को लगने लगा था कि कैलाशा को बेहतर स्कूल मे भेजना चाहिए, लेकिन कैसे।

पाँच साल और बीत गए, कैलाशा पाँचवी कक्षा में पढ़ने लगी थी। अपनी क्लास में हमेशा फर्स्ट ही आती थी। उसकी स्कूल की टीचर ने एक दिन सुजाता को बुलवाया।

“मैडम, हम जानते है कि कैलाशा को घर में आप ही पढ़ाती है। आप तो जानती है कि वह इतनी होशियार है कि उसे किसी अच्छे स्कूल मे डाला जाना चाहिए। यह स्कूल कैलाशा की क्षमताओं को पूरी तरह से विकसित नहीं कर सकता।”

“ठीक है, मैं घर पर बात करूंगी और फिर आपको बताऊँगी,” यह कहकर सुजाता घर वापस आ गई। उसे मालूम था कि ललतू इसके लिए राजी नही होगा। वह अपनी बिटिया की परवरिश ऐसे नहीं करना चाहता था कि बाद में वह ससुराल वालों को कुछ समझे ही नहीं और ससुराल में सामंजस्य न बैठा पाये।

सुजाता ने जब यह बात ललतू को बताई तो वैसा ही हुआ जैसा सोचा था, वह कहने लगा,

“माँ जी, हमारी बिरादरी मे लड़की ज्यादा पढ़ लिख जाए तो अच्छा नहीं मानते हैं। फिर शादी में भी परेशानी होगी।”

सुजाता ने सोचा कि कहीं ललतू उसकी पढ़ाई बंद ही न करा दे इसलिए उसने उससे ज्यादा कहने से खुद को रोक लिया।

कैलाशा के जीवन के अट्ठारह साल बीत चुके थे और वह बारहवीं क्लास पास करके डॉक्टर बनने का सपना लिए मेडिकल के एग्जाम की तैयारी करना चाहती थी।

“बाबू जी, हम आगे पढ़ाई करना चाहते हैं, खर्चे की चिंता मत करिए हम पढ़ाई के साथ पढ़ाई के खर्चे के लिए काम भी कर लेंगे,” कैलाशा एक दिन ललतू से बोली। उसे सहमती के जवाब की उम्मीद कम थी, इसलिए यह बात उसने तब कहीं जब सुजाता वहीं मौजूद थी। यह बात सुनकर सुजाता ने ललतू की ओर देखा। उसे भी यह जानने की उत्सुकता थी कि ललतू क्या जवाब देता है।

ललतू उस समय क्यारी में पौधों को पानी दे रहा था। कैलाशा की बात सुनकर वह उसकी ओर देखने लगा। क्या जवाब देता बेचारा। चुपचाप पौधों को पानी देता रहा। फिर कुछ सोचकर उसने अपना काम छोड़ दिया और सुजाता के पास आकार बोला,

“माँ जी, आप ही इस नादान बिटिया को समझाइए। इतना पढ़ लिख जाएगी तो हमारी बीरादारी में कोई शादी नहीं करेगा। हमारे यहाँ लड़की इतनी पढ़ती नहीं। शादी के बाद उन्हे घर गृहस्थी के काम ही तो करनी है, क्या करेगी डॉक्टर बनकर।”

सुजाता यह बात जानती थी तो क्या बोलती। उसने कैलाशा की ओर देखा जो कातर निगाहों से देख रही थी। सुजाता का मन चाह रहा था कि कह दे,

“कैलाशा मुझे दे दो। मैं इसकी ज़िम्मेदारी लेती हूँ। बचपन से अब तक उसे साथ में ही रखा हैं लेकिन फिर भी वह अपनी नहीं हैं यह एहसास बार-बार सुजाता के सामने आता रहा। क्यों वह इस प्रस्ताव को कह नहीं पा रही थी। दिल में ख़्वाहिश थी कि कैलाशा को डॉक्टर बना दे और एक अच्छे परिवार में शादी करा दे। लेकिन अपने मन की बात समाज से तो दूर, अपने पति सीताराम जी से भी नहीं कह पायी। आज भी वह इस जकड़न से बाहर नहीं आ पा रही थी। हिम्मत की इतनी कमी क्यो थी।

वह अच्छी तरह से जानती थी कि यह आखिरी मौका है, क्योंकि अगर अब भी कैलाशा को नहीं रोक पाई तो कभी न रोक पाएगी।

दुनिया तो इसे भाग्य ही कहेगी कि कुछ दिन बाद कैलाशा के मना करने के बावजूद भी गाँव के एक लड़के से उसकी शादी तय करा दी गई। लड़का, ललतू के चाचा के जान पहचान के परिवार का था और उन लोगों से कहीं ज्यादा अच्छे स्तर का था। कई बीघा जमीन थी और लड़का उनका इकलौता वारीस था।

शादी तय करके जब ललतू गाँव से लौटा तो उसके चेहरे की चमक बता रही थी कि वह उस रिश्ते से कितना खुश था।

कैलाशा अपना दुख किससे कहती। अपनी माँ के सामने रोती तो वह प्यार से उसे समझाती

कि लड़की का यही भाग्य होता है और उसकी माँ कह भी क्या सकती थी।

सुजाता की आत्मा उसे कचोटती रहती। उसके पास तो कैलाशा से कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं थे। कैलाशा का मुरझाया चेहरा और उदासीन आँखों को देखने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।

कुछ दिन बाद शादी का दिन आ ही गया। कैलाशा ने इतने दिनो में अपने मन को शायद समझा लिया था कि वह अपने भाग्य से लड़ नहीं सकती इसलिए जो फैसला माँ-बाप ने लिया था, उसने उसे स्वीकार कर लिया। अपने मन को सपनों की दुनिया से बाहर लाकर यथार्थ के जीवन से बांध लिया। कभी-कभी उसके चेहरे पर मुस्कान दिखाई पड़ जाती थी।

सुजाता ने कैलाशा के लिए लाल रंग का सुंदर लहंगा बनवाया था। शादी, कोठी से ही हो रही थी। सारा खर्चा सुजाता और सीताराम जी ने ही उठाया था। बारात आई तो दूल्हे को देखकर सब लोग दंग रह गए थे। अच्छे नाक नक्श का लंबा, स्वस्थ और गोरे रंग का था।

सुजाता को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि इतना अच्छा लड़का कैलाशा जैसी साधारण लड़की से शादी करने को कैसे तैयार हो गया।

फेरे पड गए, कन्यादान हो गया और कैलाशा इस कोठी के लिए पराई हो गई। सुजाता ख़ुद को रोक ना सकी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी।  आँखों से आँसू बहते ही जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह नन्ही सी बच्ची कल ही इस घर के आँगन में आई थी और कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला और अब वह यहाँ से इतनी दूर चली जाएगी। मन डूबता हुआ सा महसूस हो रहा था।

दरवाजे पर दस्तक हुई,

“माँ जी अंदर आ जाए?” कैलाशा की अम्मा की आवाज थी।

“हाँ, आ जाओ,” अपने आँसू, पल्ले से पोछते हुए सुजाता बोली।

“माँ जी, कैलसिया मिलने आई है। बिदाई का समय हैं न, अब जा रही है।”

दरवाजे के पीछे लाल जोड़ा पहने, मांग में सिंदूर लगाए, हाथों में सुहाग की चूड़ियाँ पहने कैलाशा आकर खड़ी हो गई। साधारण सी दिखने वाली कैलाशा दुल्हन के जोड़े में एक अलग ही आभा बिखेर रही थी। एक बच्ची से औरत बनने का सफर कितना छोटा है। कल तक वह आशाओ और उम्मीदों के सपने देखने वाली बच्ची आज ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लिए तैयार खड़ी थी।

कैलाशा अपने लहंगे का ही नहीं, अपनी अंजान जिंदगी के बोझ का एहसास लिए सुजाता के पास आकार खड़ी हो गई और बोली,

“माँ जी, हम जा रहे हैं।”

सुजाता उसकी आँखों में उतर आए दर्द को पहचान गई। आत्मग्लानि के बोझ से मन व्याकुल हो गया। कैलाशा को गले लगाकर रोने के सिवा वह कुछ कर नहीं सकती थी। उसका रोम रोम मानों कैलाशा से कह रहा हो कि मुझे माफ कर दो, मैं हूँ तुम्हारी गुनहगार।

कैलाशा की बिदाई हो गई। वह रोई नहीं चुपचाप घर सुना करके चली गई।

ससुराल से अक्सर कैलाशा की चिट्ठी आती रहती। उसमें वह वहाँ की तारीफ लिखती रहती। कुछ दिनो बाद चिट्ठी आना कम हो गया। साल भर बीत गया। कैलाशा की अम्मा ने कई बार उसको आने के लिए लिखा। सुजाता भी उसे देखने को व्याकुल थी। तब फोन था नहीं कि कोई किसी से बात कर पाए। चिट्ठी का ही सहारा था।

“माँ जी, गाँव से ललतू के चाचा का तार आया है। ललतू को और कैलाशा की अम्मा को तुरंत बुलाया है। अभी यहाँ से बस तुरंत मिल जाएगी। क्या उन्हे जाने दें?” संजय एक दिन दोपहर को घबराया हुआ आया। उसने तार सुजाता के हाथ में पकड़ा दिया।

तार को हाथ में लेकर पढ़ा तो मन घबरा गया। अचानक बुलाया है, जरूर कोई खास बात होगी।

ललतू और कैलाशा की अम्मा फौरन चले गए और फिर पंद्रह दिन बीत गए, कोई खबर नहीं आई। संजय से तार भी कराया कि लिखकर भेजो, क्या बात है लेकिन कोई जवाब नहीं आया।

महीने भर बाद एक दिन ललतू और कैलाशा की अम्मा सुबह-सुबह वापस लौट आए। ऐसा लग रहा था कि जैसे दोनों के जान ही नहीं हो। ललतू के तो शरीर में बस हड्डियाँ ही बची थी। पूछने पर पता चला कि ससुराल वालों ने कैलाशा को जलाकर मार डाला। वह लोग जब गाँव पहुंचे तब तक दाह संस्कार हो चुका था। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई लेकिन ससुराल वालों ने मामला रफा-दफा करा दिया। आगे कोई केस कराने की, न तो ललतू को और न तो कैलाशा की अम्मा में हिम्मत थी और न तो कोई चाह थी। उनकी जिंदगी मे न कोई मकसद बचा था और न ही कोई उत्साह।

इस दुर्घटना के बाद से ललतू को कहीं से पैसे मिल जाते तो शराब पी जाता था और नशे की हालत में अपने मन के दुख को सुजाता के समान रो-रोकर सुनाता। कैलाशा की मौत का खुद को जिम्मेदार ठहराता। कैलाशा की अम्मा बस रोती रहती, किसी से कुछ कहती नहीं। कभी-कभी बस इतना ही कहती कि डॉक्टरनी बन जाती तो शादी न होती, तो क्या बुरा होता, जिंदा तो होती।

सुजाता मन में सोचती कि कैलाशा की मौत का जिम्मेदार कौन है। उसके ससुराल वाले, ललतू, कैलाशा यह वह खुद?

कितनी बार सुजाता को आत्मा ने कचोटा था कि उस लड़की की ज़िम्मेदारी वह स्वयं उठा ले। क्यों इस समाज के तानो से खुद को बचाती रही? अपने स्वयं की धिक्कार को वह कैसे सहन कर पाएगी?

अब इन प्रश्नो का कोई उत्तर नहीं हैं। उसे अपनी ही नजरों में गिरकर जीना होगा। अपने गुनाह को कबूलना होगा।

तब से आज छह साल हो गए। ललतू का दुख उतना ही गहरा है। शराब पीकर कई घंटे तक रोता चिल्लाता रहता है। कैलाशा को पुकारता रहता है। कैलाशा की अम्मा उसे संभालने की कोशिश करती है फिर खुद भी रोकर अपना गम हल्का कर लेती।

“माँ जी, लड़कियां पूछ रही है कि आप आज पढ़ाएंगी या नहीं, वह लोग वापस चली जाए,” संजय ने अंदर आकर यादों में खोई हुई सुजाता को देखकर पूछा।

“नहीं मैं आ रही हूँ, बच्चियों के इम्तिहान शुरू होने वाले है, उनका होमवर्क कराना है और पढ़ाना भी हैं।” यह कहकर सुजाता अपनी कुर्सी से उठी, पानी से मुंह धोया, दीवार पर टंगी कैलाशा की तस्वीर को देखा और अपनी कोठी के एक हिस्से में चल रहे कैलाशा मेमोरियल संस्था में पढ़ रही लड़कियों को पढ़ाने चल दी।

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Anshu Shrivastava

Anshu Shrivastava

मेरा नाम अंशु श्रीवास्तव है, मैं ब्लॉग वेबसाइट hindi.parentingbyanshu.com की संस्थापक हूँ।
वेबसाइट पर ब्लॉग और पाठ्यक्रम माता-पिता और शिक्षकों को पालन-पोषण पर पाठ प्रदान करते हैं कि उन्हें बच्चों की परवरिश कैसे करनी चाहिए, खासकर उनके किशोरावस्था में।

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