“कोई परेशानी हो तो बता दीजियेगा।” सुमन बिस्तर पर लेटते हुए बोली।
शर्मा जी ने मन मे सोचा, “क्या बताऊँ कि मुझे निर्मल से ईर्ष्या हो रही है, बड़ी अजीब है सुमन भी, पता नहीं किसके-किसके यहाँ ले जाती है मुझे। अपने आप में बहुत छोटा महसूस कर रहा हूँ।” पर वह बोले-
“कोई परेशानी नहीं है, तुम सो जाओ।”
थोड़ी देर मे सुमन सो गयी, शर्मा जी सामने कुर्सी पर बैठ गए। नींद तो नहीं आ रही थी तो आत्म निरीक्षण करने बैठ गए। आत्म निरीक्षण किया तो उन्होने पाया कि उनमे सब ठीक है। वह तो कभी गलत होते ही नहीं है। बल्कि गलत तो पूरी दुनिया लगती है। उसी दिन निर्मल को ले लीजिये। माना कि उनकी नौकरी अच्छी थी और दोनो मियाँ-बीवी का मिलाकर वेतन ठीक-ठाक होगा। पर क्या जरूरत है कि घर और गाड़ियों पर इतना फिजूल खर्च करे। अभी नौकरी चली जाएगी तो पता चल जाएगा। कोई सरकारी नौकरी तो है नहीं कि रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलेगी, आखिर मैं तो उनके फ़ायदे के लिए ही सोच रहा हूँ। मैं तो कहता हूँ कि जितनी चादर उतना ही पैर फैलाओ।
भाई, हमारे पास कम है पर जो है अपना है। कर्ज तो लेते नहीं है हम। बाबू जी ने हमेशा यही सिखाया है कि जितना हो, उसी में ही खर्च करो। झूठी शान हमें दिखानी नहीं आती। भाई, हम जो हैं सो हैं, कर तो हम बहुत कुछ सकते है पर सादगी पसंद है। बहुत तामझाम इकट्ठा करने का शौक नहीं है हमें, वरना हम भी दिखा देते कि हम क्या हैं।
रात मे काफी देर तक शर्मा जी जागते रहे। इतनी देर जागने के कारण उन्हें भूख महसूस हुई। शर्मा जी को भूख बर्दास्त नहीं थी लेकिन इतनी रात में वह होटल के कमरे में खायें क्या? जैसे ही लगा कि अब कुछ खाने को नही मिलेगा, तो भूख और बढ़ गयी। एक नई समस्या, एक तो वैसे ही नींद नहीं आ रही थी और उस पर भूख।
सुमन को जगाने से भी कोई फायदा नही, सुमन साथ में जो मठरी लायी थी वो शर्माजी ने ट्रेन में ही खाकर खत्म कर दी थी।
“मठरी तो साथ मे रखने के लिए लाये थे, फिर क्यों खा लिया। अभी थोडी देर पहले ही, तो खाये थे आप।” मठरी का खाली पैकेट देखकर सुमन थोड़ा नाराज़ होकर बोली। फिर उसने गुस्से में वह मठरी और आचार के पैकेट ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंक दिए। लेकिन तुरंत ही अगले केबिन से आवाज़ आई,
“अरे कौन है भाई, ट्रेन में कूड़ा क्यों फेंक रहे हैं?’ सारा मेरे मुँह पर आ गिरा है। स्वच्छ भारत अभियान में क्या यही योगदान है।”
सुमन जो नाराज़ दिख रही थी वह यह सुनकर घबरा गयी। शर्मा जी को भी बड़ी शर्म आई क्योंकि बाकी लोग जो बैठे थे वह उन्हें देखकर मुस्कुरा रहे थे। फिर पूरे रास्ते उन्होने कुछ नहीं खाया और बात भी नहीं की। आधे घंटे में वह लोग दिल्ली पहुँच गए थे।
उन मठरियो और साथ में नीबूं का आचार की याद आते ही मुँह में पानी आ गया। इतनी स्वादिस्ट लगती है कि कैसे रोके अपने आप को। थोड़ी बची होती तो अभी काम आ जाता। अचानक शर्मा जी को याद आया कि चलते समय जब दिव्या ने सुमन को साड़ी और उन्हें शर्ट दी थी तो साथ में घर के बने बेसन के लड्डू भी दिए थे। और कहा था,
“जीजा जी, यह लड्डू मैने बनाये है, बस यही एक ऐसी चीज़ है जिसे मैं अच्छा बनाती हूँ और यह भी मैने सुमन से ही सीखा था।” दिव्या ने हँसते हुए कहा था, फिर सुमन को देखकर बोली,
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