“अब शाम तक घर में, कोई नहीं आएगा।”
बच्चे नाना-नानी के घर गए थे और शर्मा जी के माँ-पापा तीर्थ यात्रा पर गए थे। वे अगले दिन लौटने वाले थे और बच्चों को शाम को आना था। सुमन उस दिन पूरी तरह से खाली थी। सारा काम निपट चुका था। वह अपने लिए नाश्ता ले आई और टीवी चला दिया। आज उसने सोचा था कि पूरा दिन मनपसंद प्रोग्राम देखेगी।
“ऐसा मौका बहुत मुश्किल से मिलता था कि, घर में वो अकेली हो और कोई, उसे प्रोग्राम देखते समय डिस्टर्ब न करे।” लेकिन जैसे ही वह देखने बैठी, लाईट चली गयी। घर में इन्वर्टर भी लगा था। लेकिन उससे केवल एक पंखा और एक लाईट ही चला सकते थे, टीवी नहीं चल सकता था। कितनी बार कहा है कि ज्यादा पावर का इनर्वटर लगवा लें ताकि टीवी चल सकें। अक्सर मनपसंद प्रोग्राम देखते समय लाइट चली जाती है। लेकिन यहाँ कोई उसकी सुनता ही नहीं। सुने भी तो कैसे, सच बात तो यही है कि खर्चे बढ़ाना अब मुमकिन ही नहीं था।
आजकल सभी के घर में इनवर्टर से टीवी चलता है। ज्यादा पावर वाली बैटरी ही तो खरीदनी पड़ती है। पिछले महीने सुमन की बहन आई थी मुंबई से, वह एक फिल्म देख रही थी कि बीच में लाइट चली गई। बहन तो कुछ नहीं बोली, सब समझती थी लेकिन उसकी बच्ची खूब रोई और सुमन से नाराज़ हो गई। उसे लगा कि सुमन जानबूझ कर फिल्म देखने नहीं दे रहीं है। कितनी शर्म आई थी, सुमन को उस दिन।
बिजली न आने के कारण सुमन को बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन वह क्या करती बेचारी, रेडियो चला कर गाने सुनने लगी, लेकिन जल्द ही उसे बंद कर दिया। बेकार ही बैटरी खत्म हो रही थी, मज़ा तो आ नहीं रहा था। नाश्ता करके उठ गयी और बाहर आ गयी। सड़क में भी वह क्या देखें, बाहर आते जाते हुए लोगों के चेहरे और गाड़ियों का शोर। बोर होकर फिर वापस अंदर आ गयी। सोने का मन नहीं था। पड़ोस में भी कोई खाली नहीं था जहाँ जाकर बातें ही कर ले। सभी औरतें कहीं न कहीं नौकरी करती थी इसलिए उस समय घर में कोई मौजूद ही न था। कुछ घरो में बस बूढ़ी औरतें थी पर सुमन को उनके साथ बात करने का मन नहीं था।
अभी पिछले हफ्ते वह सरिता के घर गयी थी। वहाँ उसकी सास ने बैठा लिया और दो घंटे तक उन्होंने केवल अपनी बीमारियों की ही बातें की, घर वापस आकर सुमन को लगा कि खुद उसे भी कई तकलीफे हो गई हैं। दो-तीन दिन तक उलझन में रही फिर जब शर्मा जी ने पूछा तब उसने उन्हें पूरी बात बतायी। उसके बाद शर्मा जी ने सुमन को पड़ोस में जाने को ही मना कर दिया। अब बोरियत के साथ-साथ सुमन को चिड़चिड़ाहट होने लगी थी।
“इन सब औरतों को नौकरी करने की क्या जरुरत है। सबके पति कमा तो रहे हैं, उन्हें घर पर रहना चाहिए।” वह रह-रह कर सबको कोस रही थी।
पूरे चार घंटे तक बिजली नहीं आई। तब तक वह फोन लेकर उसी में उलझी रही लेकिन वह समय ऐसा था कि उसकी सभी सहेलियाँ उस समय व्यस्त रहती थी तो किसी से भी बात नहीं हो सकी। शर्मा जी कई बार उसे न्यूज़ पेपर पढ़ने को कहते थे लेकिन उसे पेपर में ज्यादा मज़ा नहीं आता था, उसे जासूसी उपन्यास और कहानियाँ पढ़ना अच्छा लगता था पर शर्मा जी कभी उपन्यास खरीद कर नहीं लाते थे।
“एक बार वह खुद कुछ उपन्यास खरीद कर ले आयी, लेकिन जैसे ही उसने पढ़ना शुरू किया तो घर में काफी बवाल हो गया।
हुआ यूँ कि वह एक जासूसी उपन्यास था, सुमन पढ़ते-पढ़ते इतना खो जाती थी कि किचन में कभी दूध उबल कर गिर जाता, कभी रोटी जल जाती, कभी सब्जी में नमक डालना या तो भूल जाती थी या दो बार डाल देती थी। सास-ससुर दोनों चिल्लाते रहते।
शाम को जब शर्मा जी घर वापस आते तो दिन भर की खूब शिकायत होती। सुमन को भी सबका मना करना बहुत खराब लगता लेकिन वह चुपचाप सुन लेती। वह जो उपन्यास पढ़ रही थी, उसमें किसी का खून हो गया था। पुलिस और जासूस दोनों खूनी को ढूँढ रहे थे। कभी-कभी लगता कि बस अब तो जासूस खूनी को पकड़ ही लेगा, पर तभी ऐसा मोड़ आ जाता कि किसी दूसरे आदमी पर शक होने लगता। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ रही थी, करीब-करीब सभी पात्र पर शक होने लगा था। कहानी इतनी रोमांचक हो गयी थी कि सुमन सबकी डांट सुनकर भी पढ़ती रहती। लेकिन एक दिन तो हद ही हो गयी। हुआ यूँ कि सुमन, शर्मा जी का खाना पैक कर रही थी, उस दिन पनीर के कोफ्ते बनाये थे, बड़े ध्यान से और मन लगाकर बनाये थे उसने। चखकर भी देख लिया, बहुत स्वादिष्ट बने थे। सारा खाना तैयार कर लिया, बस पैक करना बाकी था, तभी उसने उपन्यास उठा लिया और खाना पैक तो कर दिया, लेकिन उसने रोटी की जगह नैपकिन का पैकेट रख दिया। दोपहर में जब शर्मा जी ने टिफिन में रोटी नदारत देखी तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने निश्चय किया कि अब उस घर में या तो वह रहेंगें या फिर उपन्यास। घर आकर उन्होंने सारे उपन्यास रद्दी वाले को बेच दिए और सुमन को सख्त हिदयात दे दी कि घर मे आगे से कभी ऐसे उपन्यास नहीं आएंगे।
बेचारी सुमन के पास इस बात को मानने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। लेकिन उसके मन में एक बात का अफसोस बना रहा कि वह उस कहानी का अंत नहीं पढ़ पाई कि खूनी कौन था। इस बात के लिए उसे अक्सर शर्मा जी के ऊपर बहुत गुस्सा आता था कि कम से कम उसे अंत तो पढ़ लेने देते। उसने सोच लिया था कि कभी उसे बाजार में वही किताब मिली तो शर्मा जी से छुपा कर खरीद ही लाएगी। बिना खूनी का नाम जाने उसे चैन नहीं मिल रहा थी।
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